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श्रीराम कथा को सुन कर जन्मों-जन्मों के दुख व कष्ट दूर हो जाते हैं

विगत अंक में हम श्रवण कर पा रहे थे, कि सतीजी के मन में अगस्त्य मुनि जी के प्रति वह आदर भाव उत्पन्न नहीं हो पा रहा था, जो स्वयं भगवान शंकर के हृदय में था। इसके पीछे क्या कारण था? सतीजी तो भगवान शंकर जी की अनन्य भक्त व अनुगामिनी थी। फिर वह कैसे भगवान शंकर से विलग सोच रख रही थी। वास्तव में सतीजी भगवान शंकर के प्रति तभी तक भक्ति व सेवा का भाव रख पा रही थी, जब तक उन्होंने अपनी बुद्धि व तर्क-वितर्क का प्रयोग नहीं किया था। आज तक तो सतीजी ने, भगवान शंकर के प्रति केवल समर्पण ही सीखा था। और समर्पण की तो यह विशेषता है, कि उसमें तो बुद्धि की सुनी ही नहीं जाती। बुद्धि की सुनी जाती, तो सतीजी कभी भी अपने पिता के महलों को त्याग कर, भगवान शंकर के साथ कैलास पर रहने न आती। क्योंकि कहाँ तो महलों के सुंदर साज-सज्जा से भरपूर पलंग व आसन, और कहाँ कैलास की हाँड जमाने वाली ठंड। वहाँ भी बैठने को पलंग इत्यादि नहीं, अपितु सिला पर ही शिवजी के साथ मृगछाल पर बैठना पड़ रहा था। क्या ऐसे में बुद्धि आज्ञा देगी, कि भगवान शंकर को अपना जीवन साथी बनाने का निर्णय किया जाये? लेकिन सतीजी तब भी ऐसा कठिन निर्णय लेती हैं। क्योंकि उनको पता था, कि जीवन का सार तो ईश्वर ही हैं। लेकिन अगस्त्य मुनि के आश्रम में जाते ही, सतीजी के विचारों की तार शिवजी के विचारों से मेल नहीं खा रही थी। इसके पीछे क्या कारण था?
कारण यह था, कि उस समय सतीजी के हृदय में अपने पिता के संस्कार जाग्रत हो गये। कैसे, क्यों और कब जैसे प्रश्न प़फ़न उठाने लगे। इसी कड़ी में सतीजी जैसे ही भगवान शंकर के साथ उनके आश्रम में दाखिल होने लगी, तो क्या देखती हैं, कि अगस्त्य मुनि बड़े भाव से भगवान शंकर व उनकी आरती करके वंदना करते हैं। अपना इतने सम्मान के साथ आदर होता देख, भगवान शंकर के नेत्र नीचे हो जाते हैं, क्योंकि इतने बड़े ऋर्षि द्वारा, उनका ऐसे भगवान की तरह पूजन करना, उन्हें संकोच में डाल रहा था। गोस्वामी जी कहते भी हैं, कि मुनि ने उनका अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी जान कर पूजन व स्वागत किया-

‘संग सती जगजननि भवानी।

पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी।।’

संत जन कहते हैं, कि यहीं पर सतीजी के मन में संशय का बीज पड़ गया। सतीजी ने सोचा, कि भगवान शंकर तो अगस्त्य मुनि की इतनी बड़ी महिमा गाते थे, कि वे तो साक्षात नारायाण हैं। तीनों देव उनके चरणों में सदा नत्मस्तक हैं। लेकिन यहाँ तो मुनि स्वयं ही भगवान शंकर का ऐसे पूजन कर रहे हैं, मानों मुनि कोई बड़े महात्मा न होकर, एक निम्न से दास हों। अब कोई दास से भला कथा थोड़ी न सुनी जा सकती है? कथा सुनाने वाले का स्थान तो सदा से ही बड़ा होता है। वह किसी को प्रणाम भी नहीं करता। बल्कि श्रोतागण ही उसे प्रणाम करते हैं। कथा व्यास की आरती तो सदा से ही उतारी जाती है, लेकिन यहाँ हम श्रोता गणों की भी आरती उतारी जायेगी, यह हमने पहली बार देखा है। यह भला ऐसा कथा व्यास हमें क्या कथा सुनायेंगे?

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ऐसे नकारात्मक विचारों से सतीजी ऐसी प्रभावित हुई, कि बस संभल ही न पाई। सतीजी का हृदय तर्क-वितर्क के तीक्षण बाणों से छलनी हो गया। जिसका परिणाम यह हुआ, कि जिस श्रीराम कथा को सुन कर जन्मों-जन्मों के दुख व कष्ट दूर हो जाते हैं, उसी श्रीराम कथा में सतीजी को अरुचि का कष्ट हो रहा है। वे शिवजी के साथ कथा रसपान हेतु बैठ तो जाती थी, लेकिन पूरा समय कभी साड़ी का पल्लू अँगुली पर लपेटती रहती, या फिर उनका ध्यान पेड़-पत्तियों पर चहकते पक्षियों की चीं-चीं पर ही रहता।

सतीजी को लगता था, कि श्रीराम कथा केवल श्रीराम जी की ही कथा है। लेकिन उन्हें क्या पता था, कि प्रभु श्रीराम जी की कथा में हमारे जीवन की व्यथा के निवारण के सूत्र पिरोये होते हैं। हमें हमारे दैनिक जीवन में कहाँ और कैसे निर्णय लेने होते हैं, यह प्रभु अपने जीवन चरित्र में उतार कर सिखाते हैं। यही सूत्र सतीजी के जीवन में भी काम आने वाले थे। लेकिन सतीजी ने उन सूत्रें को ध्यान से नहीं सुना, और यही गलती उनके जीवन के दुख का कारण बनने वाली थी।

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