मायावती मुश्किल में, इधर जाएं या उधर !

नवेद शिकोह

संकेत हक़ीक़त बने और देश के विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ लामबंद हुए तो बसपा कहां जाएगी ? पार्टी सुप्रीमो मायावती को नई सियासी गणित असमंजस में डाल सकती है। भाजपा के खिलाफ विपक्षी ख़ेमें में नहीं गईं तो उनका जनाधार और भी कमजोर हो सकता है। भाजपा की बी टीम होने के इल्ज़ाम और भी गहरे हो जाएंगे। बीच की स्थिति में अपना बचाखुचा बेस दलित वोट भाजपा के मोह से बचाना मुश्किल होगा और मुस्लिम वोट की तो आशा ही छोड़ देनी होगी। फिलहाल मायावती के बयानों से तो नहीं लग रहा कि वो विपक्षी खेमें की ताक़त बनेंगी। कांग्रेस दिग्गज राहुल गांधी की संसद सदस्यता जाने के बाद बसपा को छोड़कर देश-भर के भाजपा विरोधी दल एकजुट होने के संकेत देने लगे हैं।


इस मामले के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती का भी बयान आया लेकिन उनका ये बयान राहुल के समर्थन या भाजपा पर हमलावर होने के बजाए उल्टा कांग्रेस को ही घेरने वाला था। जब देश के विपक्षी केंद्र सरकार पर लोकतंत्र का गला घोंटने और तानाशाही के आरोप लगा रहे हैं, ऐसे में मायावती कांग्रेस पर हमलावर हुईं। उनका बयान अतीत की कांग्रेस हुकूमत की इमरजेंसी की आलोचना कर रहा था, उसे याद दिला रहा था।

दूसरी तरफ एक-एक कर सभी विपक्षी लामबंद होते दिखाई दे रहे हैं।सोमवार को संसद में कांग्रेस के साथ अन्य विपक्षी दलों के लोग भी सांकेतिक विरोध करने के लिए काले लिबास में नज़र आए। सजा सुनाए जाने और फिर संसद सदस्यता जाने के बाद से राहुल गांधी के समर्थन में विपक्ष के नेताओं ने ट्वीट करने और बयान देने का सिलसिला जारी कर दिया था। और तो और जिनका कांग्रेस से छत्तिस का आंकड़ा है वे दल भी समर्थन में नजर आए। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली और फिर पंजाब में कांग्रेस का अस्तित्व समाप्त कर दिया। फिर गुजरात में कांग्रेस का जनाधार छीनने की सिलसिला शुरू कर दिया। दोनों दलों में कटुता इतनी की कांग्रेस के कुछ नेताओं ने आप के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी को सही ठहराया था। कांग्रेस ने हमेशा आप को भाजपा की बी टीम कहा। लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल राहुल मामले पर भाजपा पर सबसे अधिक हमलावर हुए। उन्होंने मोदी सरकार की कटु निंदा करते हुए राहुल गांधी का समर्थन किया। इसी तरह सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो कल तक कांग्रेस से दूरी बना रहे थे वो भी कांग्रेस के नजदीक नजर आने लगे। अखिलेश यादव और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कांग्रेस नेता राहुल गांधी के समर्थन में आ गए। संसद में तृणमूल कांग्रेस के सांसद काले लिबास में नज़र आए।


विपक्षी एकता का सिलसिला रफ्तार पकड़ रहा है लेकिन ये जरूरी नहीं कि लोकसभा चुनाव से पहले एकता बन ही पाए। सियासत में कभी भी कुछ भी हो सकता है। ऊंट की नई करवट किसी भी पुराने बयान या संकेत को ग़लत भी साबित कर सकती हैं। ताजुब नहीं कि भाजपा के खिलाफ एकजुटता मूर्तरूप ना ले सके। संभव ये भी है कि ना.. ना… करके मायावती भी विपक्षी खेमें में शामिल हो जाएं। यदि ऐसा हुआ तो महागठबंधन और बसपा दोनों को लाभ हो सकता है। मायावती दलित समाज की सबसे बड़ी नेत्री हैं और दलित समाज का समर्थन हासिल करना विपक्षी महागठबंधन का बड़ा लक्ष्य होगा। ऐसे में बसपा सुप्रीमो को महागठबंधन में यूपी सहित अन्य राज्यों में भी खूब सीटें भी मिल सकती हैं और एहमियत भी।
जबकि बसपा का अलग-थलग रहकर बिना किसी गठबंधन के अकेले लोकसभा चुनाव लड़ना बहुत बड़ी चुनौती है। संभावित महागठबंधन और भाजपा के ताकतवर गठबंधन के बीच बसपा के लिए खाता खोलना भी बेहद जटिल होगा। क्योंकि बहन जी सरकार के खिलाफ ज़मीनी लड़ाई लड़ नहीं रही है और दलित समाज का विश्वास का रिश्ता धीरे-धीरे भाजपा से पुख्ता होता जा रहा है।

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