संघर्ष, समर्पण और सपना : भारतीय जूनियर हॉकी खिलाड़ियों की कहानी
किसी के लिए हॉकी बचपन से एक विरासत रही, किसी के लिए गरीबी से बाहर निकलने का एक रास्ता, और किसी ने फुटबॉल छोड़कर हॉकी को अपनाया। उनकी आत्मविश्वास और खुद को साबित करने की चाहत ने उन्हें दबाव सहने और बड़े सपने देखने की हिम्मत दी।
जूनियर विश्व कप में कांस्य पदक जीतने के बाद इस निडर युवा टीम को देखकर यह विश्वास मजबूत हुआ है कि भारतीय हॉकी का भविष्य सुरक्षित हाथों में है। इन खिलाड़ियों की पृष्ठभूमियां भिन्न हैं, हॉकी तक पहुंचने की कहानियां अलग हैं, लेकिन लक्ष्य एक ही है – भारत के लिए ओलंपिक पदक जीतना।
हरियाणा के डाबरा गांव के 21 वर्षीय कप्तान रोहित को पिछले साल सीनियर टीम के साथ अभ्यास मैच के दौरान चेहरे पर गेंद लगने से मुंह का फ्रेक्चर हुआ। इतने गंभीर चोट के बाद दो महीने तक खाना-पीना भी मुश्किल हो गया, और हॉकी छोड़ने का ख्याल भी उनके मन में आया।

रोहित ने कहा, ‘‘वो चार-पांच महीने बेहद कठिन थे। खाना-पीना भी मुश्किल हो रहा था। एक बार तो लगा कि शायद मैं फिर नहीं खेल पाऊंगा।
लेकिन हॉकी छोड़ने के बजाय मैंने तय किया कि डर को मात देनी है और रुकना नहीं है।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘अब मेरा लक्ष्य सीनियर टीम में खेलना, विश्व कप और ओलंपिक पदक जीतना है। हमें उम्मीद है कि हमारी जीत से और युवा खिलाड़ी हॉकी अपनाने के लिए प्रेरित होंगे।’’
भारतीय हॉकी की नर्सरी कहे जाने वाले ओडिशा के सुंदरगढ़ से निकले 19 वर्षीय अनमोल ने जूनियर विश्व कप के कांस्य पदक मुकाबले में अर्जेंटीना के खिलाफ शानदार प्रदर्शन कर सभी का ध्यान खींचा। केसरमल गांव, जिसकी आबादी केवल तीन हजार है, से आने वाले अनमोल की मां का बचपन में ही निधन हो गया था और नाना-नानी ने उन्हें पाला।
फुटबॉल का शौक रखने वाले अनमोल ने बताया, ‘‘मेरे गांव में सब फुटबॉल खेलते थे, लेकिन जब मैं नाना-नानी के पास गया, वहां हॉकी लोकप्रिय थी। मैंने शौकिया हॉकी खेलना शुरू किया और होस्टल में जाकर महसूस किया कि मेहनत से देश के लिए खेल सकता हूं।’’
सुंदरगढ़ से ही 21 वर्षीय मिडफील्डर रोशन कुजूर ने घास के मैदान से एस्ट्रो टर्फ तक का सफर कठिन परिश्रम से तय किया। उनका सपना है कि अपने पसंदीदा खिलाड़ी मनप्रीत सिंह की तरह ओलंपिक पदक जीतें।
रोशन कहते हैं, ‘‘हमारे गांव में जमीनी स्तर पर हॉकी टूर्नामेंट होते थे। एस्ट्रो टर्फ नहीं थी, लेकिन हमने घास पर खेलते हुए अनुभव हासिल किया। बचपन से मैं मनप्रीत सिंह को खेलते देखता था और उन्हें देखकर मिडफील्डर बनना चुना।’’
पंजाब के पठानकोट से 2015 में चीमा अकादमी से शुरुआत करने वाले गोलकीपर प्रिंसदीप सिंह ने बेल्जियम के खिलाफ क्वार्टर फाइनल में शूटआउट में शानदार प्रदर्शन कर अपने कोच पी.आर. श्रीजेश की जर्सी नंबर 16 को सार्थक बना दिया।
फुटबॉल छोड़कर हॉकी के गोलकीपर बने और क्रिस्टियानो रोनाल्डो के प्रशंसक प्रिंसदीप कहते हैं, ‘‘अर्जेंटीना के खिलाफ कांस्य पदक मुकाबले में तीन क्वार्टर तक दो गोल से पिछड़ने के बावजूद मुझे भरोसा था कि हम जीतेंगे। आखिरी क्वार्टर में हमने तय किया कि एक-दूसरे के लिए खेलना है, क्योंकि यह हमारा अंतिम जूनियर टूर्नामेंट था।’’
तनाव कम करने के लिए सिद्धू मूसेवाला के गाने सुनने वाले प्रिंसदीप ने कहा, ‘‘दर्शकों का साथ इतना उत्साहजनक था कि अब और बेहतर प्रदर्शन करने की प्रेरणा मिली है। हम किसी भी टीम से नहीं डरते और अगर हमारा दिन सही हुआ तो किसी को भी हरा सकते हैं।’’
ओलंपियन आकाशदीप सिंह के भतीजे 20 वर्षीय मनमीत सिंह को हॉकी विरासत में मिली। उनके परिवार में हर कोई हॉकी से जुड़ा है। मनमीत बताते हैं, ‘‘मेरे पिता फौज में थे और राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी खेलते थे। चाचा आकाशदीप सिंह भी खिलाड़ी हैं, जबकि तायाजी पंजाब पुलिस के लिए हॉकी खेलते थे। मैदान में गलती होने पर घरवालों से भी डांट पड़ती है।’’
पंजाब के घुमन कलां गांव के 20 वर्षीय फॉरवर्ड दिलराज ने शुरू में हॉकी को गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन मां की कुर्बानियों ने उन्हें कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी। नौकरी पाने के लिए हॉकी अपनाने वाले दिलराज कहते हैं, ‘‘मेरे पिता ठीक नहीं रहते थे और मां ने अपने गहने बेचकर पहली गोलकीपिंग किट दिलाई।
कई बार टूर्नामेंट के लिए पैसे नहीं होते थे। मैदान पर उतरते समय हमेशा मां की कुर्बानियां याद आती हैं।’’ उन्होंने जोड़ा, ‘‘अब तय है कि हॉकी में पूरी ईमानदारी से खेलकर मां को अच्छे दिन दिखाऊंगा और देश का नाम रोशन करूंगा।’’
उत्तर प्रदेश के 21 वर्षीय ड्रैग फ्लिकर शारदानंद तिवारी ने चार साल पहले बेल्जियम के खिलाफ जूनियर विश्व कप में विजयी गोल किया था और इस बार भी नॉकआउट में अहम गोल करके पिछली बार की कसक मिटा दी।
उन्होंने कहा, ‘‘2021 में भुवनेश्वर में बेल्जियम के खिलाफ गोल मेरी थी, लेकिन हम चौथे स्थान पर रहे। 2023 में कुआलालम्पुर में जाने से एक दिन पहले बीमार हो गया था। इस बार तीसरी बार लकी रहा और क्वार्टर फाइनल में गोल कर खुश हूं।’’
शारदानंद कहते हैं, ‘‘मैं दबाव में नहीं आता क्योंकि मन में भगवान का नाम लेता हूं और भरोसा रहता है कि मौका मिलने पर गोल कर ही दूंगा।’’



