मां की मेहनत और संकल्प की ताकत : दिलराज सिंह की प्रेरक यात्रा
दिलराज सिंह के लिए हॉकी सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि परिवार की मेहनत और त्याग का प्रतीक है। बचपन में पढ़ाई से बचकर हॉकी का रुख करने वाले दिलराज ने तभी से ठान लिया था कि एक दिन खेल के मैदान पर नाम कमाकर अपने परिवार को गौरवान्वित करेंगे।
यह संकल्प उनके दिल को तब और मजबूत हुआ जब उन्हें पता चला कि पहली गोलकीपिंग किट दिलाने के लिए उनकी मां रूपिंदर कौर को अपने गहने तक बेचने पड़े थे।
जूनियर हॉकी विश्व कप में नौ साल बाद कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय टीम के लिए सबसे अधिक छह गोल करने वाले दिलराज, अपने जन्मदिन पर मिली इस बड़ी जीत के बाद भावुक हो उठे।

उन्होंने कहा, ‘‘जीत के बाद सबसे पहले मैंने मां से बात की। वह काफी भावुक हो गई थीं। वह मेरा मैच नहीं देखती क्योंकि डर लगता है। वह उतना समय अरदास करती रहती हैं।’’
पंजाब के इस खिलाड़ी ने शुरुआती दिनों की कठिनाइयों को याद करते हुए बताया कि उनके पिता ठीक नहीं रहते थे और उनके परिवार की सारी जिम्मेदारी मां पर थी। ‘‘जब मैंने पहली गोलकीपिंग किट ली थी, तो मां को अपने गहने बेचने पड़े थे।
इसके बारे में सिर्फ मां और मैं ही जानते थे। यह सोचकर मुझे बहुत दुख हुआ और मैंने और संजीदगी से खेलना शुरू किया। मैदान पर उतरते ही मां की कुर्बानियां याद आती थीं।’’
हालात इतने कठिन थे कि कई बार टूर्नामेंट में जाने के लिए उनके पास पैसे तक नहीं होते थे। ‘‘कभी-कभी टूर्नामेंट में ईनाम मिल जाता तो काम चल जाता था,’’ उन्होंने कहा। दिलराज पिछले साल जोहोर कप में तीन गोल और जूनियर एशिया कप में सात गोल कर टीम के स्वर्ण पदक जीतने में भी योगदान दे चुके हैं।
जूनियर विश्व कप में पदक जीतना उनके लिए इसलिए भी खास है क्योंकि इससे भविष्य में नौकरी मिलने और सीनियर टीम में जाने के अवसर बढ़ेंगे। उन्होंने एक समाचार एजेंसी को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘‘यह पदक मेरे लिए बहुत अहम है। इससे नौकरी मिलने का रास्ता खुलेगा और सीनियर टीम में जाने के दरवाजे भी खुलेंगे। घर के हालात ऐसे हैं कि नौकरी मिलना मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।’’
बीस साल के इस फारवर्ड ने बचपन की शरारतों की वजह से हॉकी अकादमी में दाखिला लेने की कहानी भी साझा की। ‘‘पढ़ाई में मन नहीं लगता था, तो घर वालों ने मुझे बटाला की चीमा हॉकी अकादमी में भेजा। मेरे तायाजी का लड़का खेलता था, उसे देखकर मैं भी गया और रोता रहा।’’
गोलकीपर के रूप में शुरुआत करने वाले दिलराज ने बीच में ही अपनी पसंद बदल दी। ‘‘मैं गोलकीपर नहीं बनना चाहता था। मिडफील्ड खेलना चाहता था। इसलिए मैं फॉरवर्ड में खेलने लगा और घुमन कलां पिंड में कोच कुलविंदर सिंह के साथ अभ्यास शुरू किया। फिर सुरजीत हॉकी अकादमी में चयन हुआ।’’
दिलराज ने माना कि शुरुआती दिनों में उन्हें समझ नहीं आता था कि गोलकीपर खेलें या मिडफील्ड। ‘‘अनजाने में गोलकीपिंग के लिए हां कह दी थी, लेकिन मन नहीं लगा।’’ जब यह पूछा गया कि क्या उन्होंने यह बात जूनियर टीम के कोच पी.आर. श्रीजेश को बताई, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, ‘‘नहीं, बिल्कुल नहीं।’’
दिलराज ने अपनी पहली कमाई की खुशी भी साझा की। ‘‘लखनऊ में चीमा अकादमी के टूर्नामेंट में मुझे पांच या छह हजार रुपये मिले। मैं सारी रकम मां को दे दी। इतनी खुशी हुई कि बता नहीं सकता।’’
जूनियर विश्व कप से उन्हें आत्मविश्वास और दबाव में खेलने की क्षमता भी मिली है। ‘‘इस टूर्नामेंट से यह सीख मिली कि जीत के साथ हार भी जुड़ी होती है। दबाव का सामना कैसे करना है और टीम के साथ बांडिंग कैसी होनी चाहिए। अभी आगे बहुत कुछ हासिल करना है।’’
दिलराज की कहानी सिर्फ हॉकी की नहीं, बल्कि संघर्ष, परिवार की कुर्बानी और आत्मविश्वास से मिली सफलता की मिसाल है। उनके हर गोल के पीछे उनकी मां की मेहनत और उनकी अपनी संकल्प शक्ति छिपी है।



