भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का काला धब्बा: 25 जून की इमरजेंसी

राघवेंद्र प्रताप सिंह: आमतौर पर इमरजेंसी शब्द का जब जिक्र होता है तो किसी बेहद नाजुक स्थिति का अहसास होता है लेकिन इमरजेंसी का राजनीतिक लाभ करने की कोशिश की जाए तो ये देश के लोकतंत्र, भारतीय संविधान की आत्मा पर बहुत बड़ा चोट है।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में इमरजेंसी यानी आपातकाल एक काला धब्बा है। 21 मार्च 1977 को देश में करीब 19 महीने का आपातकाल खत्म हुआ था। इससे पहले 26 जून 1975 की सुबह इंदिरा गांधी ने रेडियो पर आपातकाल लगाने की घोषणा की थी। 25 और 26 जून की मध्यरात्रि इमरजेंसी के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद दस्तखत कर चुके थे। इसके साथ ही देश में आपातकाल लागू हो चुका था।

इस दौरान दर्जनों मनमाने सरकारी फैसले हुए :

इंदिरा गांधी ने 26 जून 1975 को आकाशवाणी पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए आपातकाल लगाने के कारण बताए थे। उन्होंने कहा था, “देश में कुछ ऐसी ताकतें हैं जो अस्थिरता पैदा कर रही हैं और सरकार को अपने फैसले लेने में बाधा डाल रही हैं।” उन्होंने आपातकाल को देश की सुरक्षा के लिए जरूरी बताया था। उन्होंने कहा था कि कुछ ताकतें देश को अस्थिर करने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि, विपक्षी दलों और कई लोगों ने इसे लोकतंत्र पर हमला बताया। करीब 19 महीने तक देश में इमरजेंसी लगी रही। इस दौरान दर्जनों मनमाने सरकारी फैसले हुए। सरकार का विरोध करने पर दमनकारी कानून मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख ग्यारह हजार लोग जेल में ठूंस दिए गए। कैद के दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण की किडनी खराब हो गई। कर्नाटक की मशहूर अभिनेत्री डॉ. स्नेहलता रेड्डी जेल से बीमार होकर निकलीं, बाद में उनकी मौत हो गई।

देशभर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई :

इमरजेंसी के समय विरोध प्रदर्शन का तो सवाल ही नहीं था। लेखक, कवि और फिल्म कलाकारों तक को नहीं छोड़ा गया। ऊपर से संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडा बनाया जिसमें परिवार नियोजन प्रमुख था। 19 महीने के दौरान देशभर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। आपातकाल लगाने का बैकग्राउंड देखें तो 1971 में, विपक्षी नेता राज नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव में गलत तरीके अपनाने की शिकायत की, उन्होंने रायबरेली से लोकसभा चुनाव हारने के बाद यह शिकायत दर्ज कराई। 1973 से 1975 के बीच इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ राजनीतिक अशांति और प्रदर्शन बढ़ गए। 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध के बाद महंगाई बढ़ गई थी। जरूरी चीजों की कमी हो गई और आर्थिक मंदी आ गई। इस कारण गुजरात से बिहार तक पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव प्रचार में गड़बड़ी करने का दोषी पाया। कोर्ट ने उनके चुनाव को रद्द कर दिया। 22 जून 1975 को विपक्षी नेताओं ने एक रैली की। उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद सरकार के खिलाफ हर रोज प्रदर्शन करने का ऐलान किया। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इंदिरा गांधी को अब संसदीय अधिकार नहीं मिलेंगे। उन्हें वोट देने से रोक दिया गया, लेकिन वे प्रधानमंत्री बनी रह सकती थीं। 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा कर दी। 26 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने रेडियो पर देश को संबोधित किया। उन्होंने आपातकाल लगाने के कारण बताए।

प्रश्न यह है कि कैसा था वह आपातकाल ? यहां उसका सम्पूर्ण वर्णन सीमित शब्दों में सम्भव नहीं। उसकी लम्बी चौड़ी कथा व्यथा है, जो स्वयं में एक दुखान्त वृतान्त है। वास्तविकता यह है कि ऐसी कोई वजह नहीं थी, कोई कारण नहीं था, जिससे आपातकाल घोषित करने की बाध्यता हो। देश में अराजकता का माहौल नहीं था, सीमाओं पर कोई व्यवधान नहीं था, आन्तरिक, बाह्य सुरक्षा को खतरे का कोई संकेत नही था। बिहार और गुजरात में छात्र, युवाओं के धरना प्रदर्शन थे, जिनमें सरकार की नीतियों के प्रति रोष था। वे संवैधानिक तरीके से अपने सुरक्षित भविष्य के लिये जायज मांग कर रहे थे। संयोगवश उस आन्दोलन को वयोवृद्ध समाजसेवी, लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण का प्रभावशाली नेतृत्व प्राप्त था, तथा उनके सहयोगी थे, कुशल संगठनकर्ता श्री नाना जी देशमुख।

इमरजेसी थोपने के पीछे श्रीमती इन्दिरा गांधी की हताशा तथा दुराग्रह निहित था, जो न्यायालय से मिली पराजय तथा अपकीर्ति की प्रतिक्रिया थी, झुंझलाहट थी। 25 जून के दिन देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई । न कोई चर्चा न कोई वार्ता,, न संसद की सहमति, किसी की संस्तुति या परामर्श की कोई आवश्यकता नही समझी गई। इन्दिरा गांधी प्रजातंत्रिक देश में तानाशाह हो गईं। मध्य रात्रि से ही जो धरपकड़ शुरू हुई, उसने सारे देश को जेलखाना बना दिया। नियम, कानून, स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार,जनतन्त्र के ये सभी उपांग कुचल दिये गये, दरकिनार कर दिये गये। अनेक विरोधी दलों के नेता पकड़े गये। सरकार का एक और सनकीपन कहें तो पूरे देश के राजनैतिक बन्दियों का आरोपपत्र मानों एक ही जगह पर तैयार हुआ हो। इसमें चुनिन्दा तीन बातें,- इन्दिरा गांधी मुर्दाबाद कह रहे थे, भीड़ को उकसा रहे थे, तथा सरकारी सम्पत्ति का नुकसान। विचित्र उदाहरण है, प्रख्यात साहित्यकार डा. रघुवंश की कोर्ट मे पेशी हुई, मजिस्ट्रेट ने देखा वे दोनों हाथों से दिव्यांग हैं और उनके आरोप पत्र पर हास्यास्पद आरोप अंकित था कि वे टेलीफोन के खम्बे पर चढ़कर तार काट रहे थे।

उस समय के राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकारवादी संगठनों तथा उपलब्ध संचार माध्यमों ने दुनिया भर में इन्दिरा गांधी के इस तानाशाही रवैये की निन्दा की। प्रेस की स्वतंत्रता छिन गई, राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने विरोध स्वरूप सम्पादकीय कॉलम रिक्त छोड़ दिये, पूरे देश मे अकारण गिरफ्तारियों का क्रम निरन्तर चलता रहा। काग्रेस सरकार का मुख्य निशाना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके अनुसांगिक संगठन, तथा संघ समर्थक व्यक्ति व संस्थायें थीं। संघ को प्रतिबन्धित संगठन घोषित कर दिया गया। देशभर के एक लाख से अधिक स्वयंसेवक जेलों में निरुद्ध थे। इन पर डीआई आर तथा नवसृजित कानून मीसा की धारायें आरोपित की गईं। अन्य राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं की भी गिरफ्तारी हुई पर वे संख्या में बहुत कम थे। संघ के लोग यद्यपि भूमिगत आन्दोलन के विशेषज्ञ नहीं थे किन्तु पूरे आपातकाल में जिस साहस व सातित्य से अनथक कार्य उन्होने किया, दुनिया उनकी योजना क्षमता की कायल है। विश्व के इतिहास में जो भी बड़े आन्दोलन हुए हैं, उनमें आपातकाल के खिलाफ यह आन्दोलन पूर्णतः अहिंसक था, यह उल्लेखनीय है।

18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक मार्च में लोकसभा चुनाव कराने की घोषणा कर दी। 16 मार्च को हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी और संजय दोनों बुरी तरह हार गए। आपातकाल के रूप में देश पर लगा कलंक 21 मार्च को आधिकारिक रूप से खत्म हो गया। कांग्रेस महज 153 सीटों पर सिमट गई और देश में जनता पार्टी की सरकार बनी। 24 मार्च को मोरारजी देसाई ने देश के चौथे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।

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