अफगानिस्तान में सिखों को बनाया जा रहा निशाना
अफगानिस्तान में सिखों को बनाया जा रहा निशाना
हाल ही में अफगानिस्तान के काबुल स्थित कार्ते पारवन गुरुद्वारा पर कायरतापूर्ण आतंकवादी हमला हुआ जिसकी कठोर शब्दों में निंदा भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा की गई। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया कि ; “काबुल में कार्ते पारवन गुरुद्वारे पर कायरतापूर्ण आतंकवादी हमले से स्तब्ध हूं। मैं इस बर्बर हमले की निंदा करता हूं और श्रद्धालुओं की सुरक्षा व सलामती के लिए प्रार्थना करता हूं।”अफगानिस्तान में रहने वाले सिखो की बात करें तो काबुल में छब्बल सिंह जो कि गुरुद्वारा दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी सिंह सभा कर्ते परवान प्रबंधन कमेटी के सदस्य हैं , के अनुसार अफगानिस्तान में इस समय करीब 650 सिख हैं (90-100 परिवार) तथा करीब 50 हिंदू बाकी बचे हैं। 2020 में 25 मार्च को काबुल में गुरुद्वारे जब से हमला हुआ है तब से अब यहां पर कोई भी नहीं रहना चाहता।
काबुल में 25 मार्च को गुरुद्वारा हरराय साहिब में एक आतंकी हमले में आई.एस. के बंदूकधारियों ने 25 सिखों की निर्मम हत्या की थी उसी दिन से अल्पसंख्यक सिख तथा हिंदू समुदायों ने भारत सरकार को उनके तत्काल अफगानिस्तान से बचाव के लिए कई बार अपील की है। अफगानिस्तान में सिख धर्म कब पहुंचा यदि इसकी बात करें तो सिख धर्म के संस्थापक श्री गुरु नानक देव जी ने 16वीं शताब्दी के शुरू में अफगानिस्तान की यात्रा की तथा नींव-पत्थर रखा। उनकी जन्म साखियों में दर्ज इतिहास के अनुसार उनकी चौथी उदासी के दौरान (1519-21) उन्होंने भाई मरदाना के साथ अफगानिस्तान की यात्रा की जिसमें वर्तमान में काबुल भी शामिल था। इसके अलावा उन्होंने कंधार, जलालाबाद तथा सुल्तानपुर की यात्राएं कीं। इन सभी स्थानों पर आज गुरुद्वारे बने हुए हैं। सिखों के 7वें गुरु गुरुहरराय जी ने भी काबुल में सिख प्रचारकों को भेजने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अफगान समाज में हिंदुओं तथा सिखों द्वारा अफगानिस्तान में व्यापार करने के कई दस्तावेज रिकार्ड किए गए हैं। मगर आज 99 प्रतिशत हिंदू तथा सिखों ने अफगानिस्तान को छोड़ दिया है। तालिबान ने पहचान के लिए हिंदुओं और सिखों को पीले रंग की पट्टी पहनने को मजबूर किया। यह नाजी जर्मनी में यहूदियों के पीले सितारा की तरह ही था। अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्सों में यह उत्पीड़न अभी तक जारी रहा। इसीलिए सत्ता में तालिबान की वापसी होते ही हिंदुओं और सिखों ने देश छोड़ने का फैसला लिया, जिनमें से ज्यादातर भारत आ चुके हैं। यह तालिबान का खौफ ही था जिसने उन्हें अपना घर, अपनी जमीन, अपने मंदिर, अपनी आस्था और यादों को छोड़ने के लिए मजबूर किया।