भास्करन की पुकार—हॉकी में बदलाव ही दिलाएगा अगला ओलंपिक स्वर्ण

मॉस्को ओलंपिक 1980 में भारतीय हॉकी टीम को उसका आठवां और अब तक का आखिरी स्वर्ण पदक दिलाने वाले कप्तान वासुदेवन भास्करन अब 45 साल बाद फिर उसी सुनहरे पल को दोहराते देखने की उम्मीद कर रहे हैं।

उनका मानना है कि 2036 ओलंपिक भारत के लिए वह मौका हो सकता है—यदि टीम में बदलाव समय रहते और सही दिशा में किए जाएं। भास्करन स्वीकार करते हैं कि उनके नाम के साथ ‘‘आखिरी ओलंपिक स्वर्ण जीतने वाले भारतीय कप्तान’’ की पहचान जुड़ जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता।

वे कहते हैं कि टोक्यो 2020 में 41 साल के अंतराल के बाद मिले कांस्य और फिर पेरिस ओलंपिक में उसकी पुनरावृत्ति ने टीम को एक नई दिशा दी है, लेकिन अगला बड़ा कदम तभी संभव है जब नए खिलाड़ियों को योजनाबद्ध तरीके से अवसर दिए जाएं।

साभार : गूगल

वे साफ तौर पर बताते हैं कि लॉस एंजिलिस 2028 के लिए वे दावे के साथ नहीं कह सकते क्योंकि पुरुष हॉकी टीम को इस समय कुछ बुनियादी बदलावों की जरूरत है।

पी.आर. श्रीजेश के संन्यास ने गोलपोस्ट में खालीपन छोड़ा है और कम से कम चार–पांच सीनियर खिलाड़ियों को जगह छोड़कर जूनियर्स के लिए रास्ता बनाना होगा। उनके अनुसार बदलाव तभी असरदार होगा जब वह “सही समय” और “सही पोज़िशन” पर हो ताकि नवोदित खिलाड़ियों को तैयारी का पूरा अवसर मिले।

भास्करन, जिन्होंने 1997 में कोच रहते भारत को जूनियर विश्व कप फाइनल तक पहुंचाया था, यह याद दिलाते हैं कि जूनियर स्तर हमेशा से भारतीय हॉकी को मजबूत करता रहा है—चाहे वह 2016 जूनियर विश्व कप के बाद उभरे हरमनप्रीत सिंह और रूपिंदर पाल हों, या 1997 बैच के बलजीत सैनी, दिलीप टिर्की, समीर दाद और देवेश चौहान जैसे नाम। उनके अनुसार जूनियर विश्व कप ही बदलावों की शुरुआत का सबसे प्रभावी मंच है।

राष्ट्रमंडल खेल 2030 की मेजबानी को वे युवा खिलाड़ियों के लिए बड़ा अवसर मानते हैं। क्रिकेट और हॉकी दोनों के शामिल होने के बावजूद, भास्करन का विश्वास है कि हॉकी का स्तर अधिक ऊंचा होगा क्योंकि कॉमनवेल्थ देशों में यह खेल मजबूत परंपरा रखता है। उनके लिए यह एक तरह का “मिनी वर्ल्ड कप” होगा, जो युवाओं के लिए आदर्श परीक्षा बन सकता है।

वे भारतीय हॉकी में कोचिंग टेन्योर को लेकर भी मुखर हैं। बार–बार कोच बदलने से प्रदर्शन पर असर पड़ता है, इसलिए वे कम से कम चार साल का स्थिर कार्यकाल, तीन कोचों और सपोर्ट स्टाफ—फिजियो और ट्रेनर सहित—को टीम के साथ लगातार रखने की वकालत करते हैं।

उनका कहना है कि अगर सरकार और हॉकी इंडिया इतना निवेश कर रहे हैं तो किसी एक टूर्नामेंट के खराब नतीजे के आधार पर कोच को हटाना सही रणनीति नहीं है।

भास्करन आगामी व्यस्त कार्यक्रम पर भी ध्यान दिलाते हैं—अगले साल अगस्त में नीदरलैंड और बेल्जियम में सीनियर विश्व कप, और उसके तुरंत बाद एशियाई खेल। वे मानते हैं कि भले ही दोनों इवेंटों के बीच समय कम है, लेकिन एशियाई खेलों में ओलंपिक का टिकट दांव पर होने के बावजूद विश्व कप को हल्के में नहीं लिया जा सकता।

1973 विश्व कप में रजत जीतने वाली टीम के सदस्य रहे भास्करन याद दिलाते हैं कि भारत पिछले 50 साल से विश्व कप नहीं जीत पाया, इसलिए यह टूर्नामेंट सबसे बड़ी प्राथमिकता होना चाहिए।

एशियाई खेलों का रास्ता तुलनात्मक रूप से आसान है, जहाँ वास्तविक चुनौती कोरिया या जापान जैसी एक–दो टीमों से होगी।
2006 विश्व कप में भारत के कोच रहे यह अनुभवी खिलाड़ी मानते हैं कि कोचों, ट्रेनरों और वैज्ञानिक ट्रेनरों को मिलकर यह तय करना चाहिए कि विश्व कप में सबसे मजबूत टीम उतारी जाए।

अगर एशियाई खेलों के जरिए ओलंपिक टिकट नहीं भी मिला तो अन्य क्वालीफायर्स मौजूद हैं—घबराने के बजाय टीम पर भरोसा रखने की जरूरत है। भास्करन बताते हैं कि टीम के पास 35 खिलाड़ियों का कोर ग्रुप है और प्रशिक्षण पर बड़ा निवेश हो रहा है। उनकी राय में विश्व कप के दो हफ्तों के बाद 15 दिन की रिकवरी लेकर आराम से एशियाई खेलों में उतरा जा सकता है।

Related Articles

Back to top button