भाजपा को नहीं मिला बजरंगबली का आशीर्वाद, टूटा दक्षिण जीतने का सपना

राम प्रकाश राय : कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बम्पर जीत मिली और भाजपा को हार. अपनी इस हार के साथ ही भाजपा रिवाज बदलने में भी नाकाम रही. दरअसल देश में कुछ राज्य ऐसे हैं जहाँ हर पांच साल बाद सत्ता में परिवर्तन होता ही है. 1985 के बाद से ये ट्रेंड कर्नाटक में भी देखने को मिल रहा था. हुआ भी कुछ ऐसा ही. भाजपा के सारे दावे धरे रह गये.
यहां मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि कर्नाटक विधानसभा का चुनाव कांग्रेस बिना लड़े या केवल ट्रेंड की वजह से जीती. निश्चित तौर पर कांग्रेस लड़ी और खूब मजबूती के साथ लड़ी. चुनाव संचालन से लेकर जनता के मुद्दों को उठाने तक का जो मैनेजमेंट कांग्रेस ने कर्नाटक में किया वो काबिले तारीफ था. इसी का परिणाम रही ये भारी जीत.
मैं बार-बार ये बम्पर जीत और भारी जीत कह रहा हूँ, इसके मायने हैं. राज्य में विधानसभा चुनाव के ऐलान के समय से ही तमाम सर्वे रिपोर्ट्स और ओपिनियन पोल रिपोर्ट्स ये कह रहीं थीं की कर्नाटक में भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पायेगी. राज्य की बागडोर कांग्रेस के हाथ होगी. साथ-साथ चुनाव की शुरुआत के समय से ही राजनीती का हर ज्ञाता या विश्लेषक इस बात का भी जिक्र कर रहा था कि यदि कांग्रेस बहुमत के करीब पहुंचती है या कुछ दूरी पर रह जाती है तो फिर सरकार भाजपा ही बनाएगी. इतना ही नहीं कहा ये भी जा रहा था कि यदि कांग्रेस 113-120 सीटें जीत कर सरकार बनती है तो उस सरकार का भविष्य खतरे में ही रहेगा.

ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि बहुमत के करीब के आकड़े पर सत्ता सुरक्षित नहीं रह पायेगी. भाजपा फिर वही करेगी जो कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार के साथ किया था और कुमारस्वामी को सत्ता गंवानी पड़ी थी. ‘आपरेशन कमल’ के सहारे दोनों दलों के विधायकों को तोड़ कर उनसे इस्तीफा दिलाने और फिर सरकार बनाने के सफल प्रयोग को दोहराये जाने की संभावना प्रबल थी. ऐसे में कांग्रेस की जीत के ये आकड़े खासे महत्वपूर्ण हो जाते हैं.
इन सबसे इतर कांग्रेस का चुनाव प्रबंधन शानदार रहा. कांग्रेस के तमाम नेताओं ने स्थानीय मुद्दों पर बात की. कांग्रेस द्वारा लोगों को दी गई पांच गारंटी लोगों को ज्यादा समझ में आई. इसके अलावा कांग्रेस पार्टी की प्रसंशा इस बात के लिए भी होना चाहिए कि बड़े नेताओं से इतर कर्नाटक में भी उसने स्थानीय नेताओं को आगे कर के चुनाव लड़ा. इस फार्मूले का सफतापूर्वक इस्तेमाल कांग्रेस हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कर चुकी थी. एक बार फिर उसने इसका इस्तेमाल किया और सकारात्मक परिणाम पाया. अब चर्चा इस बात की भी होने लगी है कि क्या कांग्रेस आने वाले चुनावों में भी इस फार्मूले का प्रयोग कर सकती है? मेरा मानना है कि ‘हां’. निश्चित तौर पर ये एक सफल फार्मूला है और आने वाले चुनावों में कांग्रेस इसका प्रयोग करेगी.

अगले साल यानि 2024 में देश में होने वाले लोक सभा चुनावों के पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं. ये सभी कांग्रेस के लिहाज़ से खासे महत्वपूर्ण हैं, विशेषकर छत्तीसगढ़ और राजस्थान. इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं जिन्हें कांग्रेस किसी हॉल में भी गंवाना नहीं चाहेगी. सही मायने में यहाँ दो राज्यों में जीत दिलवाने वाले जीताऊ फार्मूले की परीक्षा भी होगी. चूंकि इन राज्यों में पिछले पांच वर्षों से कांग्रेस सत्ता में है, इसलिए उसे न केवल अपने कार्यकाल का रिपोर्टकार्ड लेकर जनता के बीच जाना पड़ेगा बल्कि आने वाले पांच सालों के वायदे भी दिखाने होंगे. साथ ही उन वादों पर सवालों के उत्तर भी देने होंगे जिन्हें गये पांच सालों में पूरा नहीं किया गया. इसके अलावा राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रहा संघर्ष भी पार्टी की मुसीबत बना हुआ है.
पार्टी की नीतियों और वादों से इतर इस चुनाव में कुछ नेताओं ने भी अलग छाप छोड़ी. कांग्रेस के चुनावी अभियान का जिम्मा संभाले बयोवृद्ध नेता और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे का ये गृहराज्य है. ऐसे में सबसे ज्यादा दारोमदार उनके कन्धों पर ही था. इसके अलावा बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष भी ये चुनाव खडगे के लिए एक परीक्षा था. साथ ही कर्नाटक प्रभारी और प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला के लिए भी ये चुनाव चुनौतीपूर्ण था. इतना ही नहीं इस चुनाव में कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गाँधी का भी एक अलग रूप देखने को मिला. एक गंभीर नेता और कुशल वक्ता के रूप में उनकी खूब चर्चा रही. इसका भी सकारात्मक असर रहा. साथ में राज्य के बड़े नेताओं को आगे कर चुनाव में जाना कांग्रेस का मास्टरस्ट्रोक साबित हुआ.

इससे इतर भाजपा एक बार फिर मुद्दों से भटकी नज़र आई. राज्य में हिजाब और टीपू सुल्तान जैसे मुद्दे पहले से ही उठाये जा रहे थे. पर चुनाव के ऐन पहले आये सर्वे की रिपोर्ट्स में भी जनता इसे ख़ारिज करती हुई दिखी. पर आश्चर्य की बात ये रही कि पुरे साल चुनाव की तैयारी करने वाली भाजपा की टीमों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. चाणक्य खे जाने अमित शाह इसे समझ नहीं पाए. इतना ही नहीं खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कर्नाटक की जनता क मूड भांप नहीं पाए और फंस गये. निश्चित तौर पर अज भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कद का दूसरा कोई नेता नहीं है. इसी के चलते भाजप हर चुनाव में उन्हें ही अपना चेहरा बनती आ रही थी. पर इस बार प्रधानमंत्री का चेहरा भी पार्टी के काम नहीं आ पाया. उलटे विपक्ष और विरोधियों को मौका मिल गया. वे अब ऐलानिया बोलते दिख रहे हैं कि पीएम का जादू अब ख़त्म हो गया है.
इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों पर भी सवाल उठना चाहिए. बूथ लेवत की तैयारी करने के लिए जानी जाने वाली भाजपा के ये रणनीतिकार आखिर चूक कैसे गये? क्यों जहाँ कांग्रेस लोगों से जुड़े मुद्दों को उठाकार उनमें पैठ बना रही थी वहां इन्होने प्रधानमंत्री सहित तमाम बड़े नेताओं को भावनात्मक मुद्दों की सूचि दी. प्रधानमंत्री ने खुद अपने भाषण में बताया कि कांग्रेस ने उन्हें 91 बार गाली दी है. प्रधानमन्त्री को कितनी बार गाली दी गई ये सूचि बनाने वाले आखिर शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों से क्यों पार्टी को नहीं जोड़ पाए? इसके अलावा हिजाब और टीपू सुल्तान मुद्दे को नकारे जाने के बाद भी आखिर बजरंग दल पर प्रतिबन्ध के कांग्रेस की घोषणा को धार्मिक रंग देते हुए बजरंग बली से क्यों जोड़ा गया? साथ ही इस मुद्दे को मुख्य मुद्दा बना देने की प्रधानमंत्री को सलाह किन लोगों ने दी? निश्चित तौर पर ऐसी रणनीति बनाने वाली टीम से सवाल पूछा जाना चाहिए.

अब ये तो पार्टियों की जिम्मेदारी है? हारने वाला हार की समीक्षा करे और आगे के लिए सुधार करें. पर फिर भी यहां मैं मानता हूँ कर्नाटक चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर ये साबित कर दिया कि अब चुनाव में आम आदमी से जुड़े मुद्दे ज्यादा प्रभावी हथियार होंगे. आप कुछ भी बोलिए पर इन मुद्दों पर भी बोलना होगा बल्कि देखा जाये तो इन पर ही बोलना होगा या इन पर पहले बोलना होगा. अंत में मेरा मानना ये भी है कि ये जीत कांग्रेस के लिए शुरुआत हो सकती है. कांग्रेस को इस चुनाव से सीखना होगा. साथ ही अपने किये गये वादों को क्रमवार समयबद्ध तरीके से पूरे करने होंगे. अगर कांग्रेस ऐसा करने में कामयाब हो जाती है तो 2024 में होने वाले लोक सभा चुनाव में लोगों के बीच जाने का बड़ा आधार तैयार हो सकेगा. हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में अपने वादों और बेहद कम समय में उन्हें पूरा करने के आधार पर कांग्रेस को लोगों से जुड़ना आसान हो जायेगा.
बहरहाल ये समय कर्नाटक विधानसभा परिणाम के हो-हल्ला का है. पार्टियाँ अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार प्रतिक्रिया में लगी हैं. कहीं उत्साह छाल्कतीं तस्वीरें हैं तो कहीं गहरी लकीर वाले चमकते माथे. परिणाम का परिणाम सदैव यही रहा है. खैर हिमाचल प्रदेश के बाद कांग्रेस की ये लगातार दूसरी जीत निश्चित तौर पर न सिर्फ पार्टी के लिए संजीवनी बनेगी बल्कि कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ाएगी. हालांकि जनता के भरोसे पर खरा उतरना पार्टी के लिए बड़ी चुनौती होगी. जो जीते उन्हें बधाई, हारे को संबल।



